अहिंसा-चिड़िया की एक रोचक कहानी


हमारी गुफा के पास बहुत से तेजपत्ते के झाड़ थे। हम उनके पत्तों को तोड़कर मसाले के समान उनका इस्तेमाल करते थे। एक दिन मैं ऐसे ही झाड़ पर चढ़कर वे पत्ते तोड़ रहा था, तो देखा एक बड़ी-सी चिड़िया और चिड़े ने मिलकर एक घोंसला बनाया था। उस घोंसले में तीन अंडे भी दिए हुए थे। वह चिड़ा ही बाहर जाता था। वह चिड़िया प्रायः अपने घोंसले में ही रहती थी। बाद में उनका घोंसला ही मेरा आकर्षण का केन्द्र बन गया। वह चिड़िया भी बाहर जाती थी. लेकिन आसपास जाकर जल्दी वापस आ जाती थी। वह चिड़ा सुबह जाता था और शाम के समय ही घर लौटता था। बाद में एक दिन क्या हुआ, मालूम नहीं, वह चिड़ा शाम को लौटा ही नहीं। बेचारी चिड़िया दुखी हो गई और उसकी राह देखती रही। लेकिन बाद में वह कभी लौटा ही नहीं। चिड़िया कुछ दिन दुखी रही. लेकिन धीरे धीरे वह दुःख भूल गई।


कुछ दिन के बाद उन अंडों से दो बच्चे निकले। एक अंडा शायद नीचे गिरकर टूट गया था। फिर रोज सुबह चिड़िया बाहर जाती थी और शाम को जब आती थी तो अपने चूजों(बच्चो) के लिए दाने मुँह में भर कर लाती थी. बड़े प्रेम से खिलाती थी। और उसके आने का समय होता था तो उसके बच्चे उसकी राह देखते थे। एक शाम देखा तो चिड़िया आई. लेकिन वह जगह-जगह बार-बार गिर रही थी और वह उस झाड़ के नीचे जाकर गिर गई। और मैंने पास जाकर देखा तो वह खून से लथपथ थी और एक छोटा-सा तीर उसे लगा हुआ था। एक बार उसने अपने बच्चों की तरफ देखा शायद बच्चों से माफ़ी माँग रही थी कि अब मैं तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकूँगी? अब मैं तुम्हें भोजन नहीं दे सकूंगी?" और मेरी ओर शायद इस आशा से देखा कि अब तुम्हीं मेरे बच्चों की देखभाल करना। मैंने काफी देर तक उसे पानी के छींटे मारे, पानी पीने के लिए दिया, लेकिन वह न बच सकी। उसने अपने प्राण छोड़ दिए। और जब मैंने उसे पानी पिलाया तो उसके मुँह से चावल के छोटे-छोटे चार वाने बाहर निकले। मैंने वह दाने झाड़ पर चढ़कर उनके बच्चों को खिलाए "तुम्हारी माँ का ये अंतिम कौर है, वह बिचारी यहाँ तक लाई थी।" वे कुछ समझे नहीं, लेकिन गर्दन ऊपर करके अपनी माँ की राह देखते रहे। पर मैं जानता था कि वह माँ अब कभी नहीं आएगी।



फिर मैंने उनकी माँ को उसी झाड़ के नीचे दफनाया और उस चिड़िया को तीर मारने वाले इंसान के बारे में सोचने लगा कि मनुष्य कितना क्रूर प्राणी है। अच्छा है, गुरुदेव ने मुझे इंसान से दूर रखा है। उस इंसान को पता भी नहीं होगा-जिसे मैं तीर मार रहा हूँ, वह छोटे-छोटे बच्चों की माँ है और उनके लिए दाने लेकर जा रही है। बाद में रोज उन बच्चों को मैं कुछ न कुछ खाने के लिए देता था। धीरे-धीरे वे बड़े हो गए और उड़ गए। तब मुझे लगा कि मैंने उस चिड़िया की आशा को पूर्ण किया। चिड़िया की घटना ने मुझे माँ के हृदय का एहसास कराया था। मैं समझ गया था, यह चिड़िया नागालैंड की सीमा की ओर गई होगी। उस भाग में आदिवासी सब पक्षियों को खा जाते हैं। इसलिए उस भाग के आकाश में पक्षी दिखते ही नहीं हैं।

वहाँ के निवासी पक्षियों का शिकार करते हैं। कुत्तों को भी खाते हैं। मैं सोच रहा था कि किसी को जन्म देने की प्रक्रिया कितनी बड़ी और कठिन है। उससे बड़ी प्रक्रिया उस बच्चे का संगोपन होता है और उसे मारना क्षण में हो जाता है। मनुष्य जिसका निर्माण नहीं कर सकता, उसे नष्ट करने का मनुष्य को क्या अधिकार है? हिंसा सदैव अप्राकृतिक है। हम रास्ते पर चल रहे हैं और अनजाने में हमारे पैर के नीचे कोई चींटी आकर मर जाती है, तो इस प्रकार की अनजाने में हुई हिंसा तो समझ में आती है, पर जानबूझ कर किसी की हत्या करना प्रकृति के खिलाफ है। प्रकृति ने हमें मनुष्य की योनि में जन्म दिया और मनुष्य का स्वभाव है-प्रेम करना और हम हिंसा कर हमारे ही मूल स्वभाव के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं। यह मानवता की अधोगति है।


अहिंसा बड़ा व्यापक शब्द है। हमारे द्वारा किसी भी प्राणी को जाने-अनजाने में भी कोई दुख न पहुँचाया जाए। इसी तरह गलत शब्दों का प्रयोग या शब्द के द्वारा किसी को दुखी करना, आँखों से अपमानित कर किसी को आहत करना, व्यंग्यात्मक बोल कर किसी को दुखी करना, सब एक प्रकार की हिंसा ही होती हैं। हम जब किसी को दुखी करते हैं, तब हम हमारे स्वभाव के विरोध में कार्य करते हैं। आध्यात्मिक प्रगति में देखा जाता है, आपसे कितने लोग प्रसन्न हैं, आप कितने लोगों को सुख दे सकते हो, आप कितने लोगों को प्रेम देते हो। इनसे ही आध्यात्मिक प्रगति होती है। और ये सब अपने हृदय से, भीतर से होना चाहिए।

- हिमालय का समर्पण योग - १ 


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