गुरुतत्त्व परमात्मा की शक्ति का एक प्रवाह होता है जो निरंतर बहते रहता है, जो अनादिकाल से अविरत बह ही रहा है। वह गुरुतत्त्व का प्रवाह कल के युग में भी विद्यमान था, आज के वर्तमान युग में भी विद्यमान है और आने वाले कल के युग में भी बहता रहेगा। यह शाश्वत व सत्य प्रवाह है। सत्य सदैव एक होता है। सत्य अविनाशी है। इस सत्य को निरंतर बहना ही पड़ता है। गुरुतत्त्व कोई शरीर नहीं है जो नाशवान हो। गुरुतत्त्व शाश्वत होता है। वह समय-समय पर परिस्थिति के अनुसार अपना माध्यम बदलता रहता है। इस माध्यम का चुनाव भी गुरुतत्त्व नहीं करता, माध्यम गुरुतत्त्व का चुनाव करते हैं।
जो भी शरीरधारी आत्मा अपने अस्तित्व को मिटाने के लिए तैयार हो जाए, जो भी अपने 'मैं' के अहंकार को छोड़ने के लिए राजी होता है, गुरुतत्त्व उसमें बहने के लिए राजी होता है। वह गुरुतत्त्व तो माध्यम में बहने के लिए तैयार ही बैठा हुआ रहता है-कौन-सी शरीरधारी आत्मा इसके लिए तैयार हो रही है? उसे शरीरधारी आत्मा की ही आवश्यकता होती है, क्योंकि उसे वर्तमान समय में प्रकट होना पड़ता है। गुरुतत्व परमात्मा की वह शक्ति है जो धरती पर अवतरित होने के लिए सदैव तैयार रहती है। जिस प्रकार से सूरज अपना प्रकाश देने के लिए सदैव तैयार होता है, सूरज अपना प्रकाश सबको समान रूप से देते रहता है, वह कोई भेदभाव नहीं करता है, परमात्मा की भी यही विशेषताएँ हैं। वह सबको उपलब्ध रहता है। बस उसे ग्रहण करने के लिए कोई तैयार होना चाहिए। अगर हम हमारे घर के दरवाजे, खिड़कियाँ बंद करके रखेंगे तो हमारे घर में अँधेरा होगा और फिर हम शिकायत करेंगे सूरज से कि तू पड़ोसी के घर प्रकाश देता है और हमारे घर में प्रकाश नहीं देता है! तो सूरज क्या करे? सूरज की भी अपनी सीमा है। वह दरवाजा तोड़कर घर में नहीं घुस सकता है। अगर आप भी अपने घर में प्रकाश चाहते हो तो आप अपने घर के दरवाजे खोलो। आपके दरवाजे आपको खोलने होंगे। जब आप अपने दरवाजे खोलोगे तो पाओगे कि सूरज आपके दरवाजे पर आपके दरवाजा खोलने की राह देख रहा है। बिल्कुल ऐसे ही, गुरुतत्त्व भी परमात्मा की वह शक्ति है जो प्रत्येक मनुष्य के लिए एक समान रूप से प्रकाशित होती है। हाँ, उनके घर में अधिक प्रकाशित होती है जो अपने घर के दरवाजे, खिड़कियाँ अधिक रूप से खोलते हैं। साधक अपना अस्तित्व जितना समाप्त करेगा, उतना ही अधिक वह परमात्मा का माध्यम बनेगा।
एक शिष्य अपना संपूर्ण समर्पण 'गुरुचरणों' पर कर देता
है। बास्तव में वह गुरु के शरीर के चरणों पर नहीं, गुरु के भीतर से बहने वाली शक्ति पर समर्पण कर रहा है। वास्तव में 'गुरुचरण' तो निमित्त हैं गुरुतत्त्व को आमंत्रित करने के लिए क्योंकि गुरु धीरे-धीरे अपने चरण हटा लेते हैं और आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ देते हैं। आत्मा और परमात्मा के संबंध के बीच सबसे बड़ी बाधा मनुष्य का शरीर ही है। उसका अहंकार खत्म होना ही समर्पण है। क्योंकि जैसे ही समर्पण होता है, वह मनुष्य रिक्त हो जाता है, खाली हो जाता है और खाली हो जाने के कारण, रिक्त होने के कारण गुरुतत्त्व उसमें समा जाता है। इसीलिए कोई गुरु शरीर नहीं होते। गुरु का अर्थ ही है-जो शरीर में हैं, पर शरीर 'मैं' नहीं हैं। ऐसा 'मैं'. विहीन शरीर गुरु होते हैं। जो शरीर में रहकर गुरुतत्त्व का माध्यम बन गए, वे गुरु हैं। तो फिर गुरु का शरीर गुरु कैसे बन सकता है? इसलिए गुरुतत्त्व के माध्यम बदलते रहते हैं और जो बदलते रहते हैं, वे केवल माध्यममात्र हैं और जो नहीं बदलता, वह
गुरुतत्त्व है। बिना गुरुतत्त्व के गुरु नहीं हो सकते हैं, लेकिन बिना गुरु के गुरुतत्त्व होता ही है।
संदर्भ: हिमालय का समर्पण योग भाग 1
गुरु मां की मां बुक का चौथा भाग हमको कब पड़ने को मिलेगा
जवाब देंहटाएं